बन्दहुं कल्याणी सुखकारी
शीश-मुकुट मनि कर्ण सुकुन्डल, चक्र गदा कर धारी
केहरि चढ़ि गर्जहि माँ ललिते, शुम्भ निशुम्भाहिं मारी
त्रिनेत्रि, धरि रूप अलौकिक, रक्तााम्बरतन सारी
वंâचनगात, शुभ्रलोचनतन, कोटि भानु उजियारी
कालरात्रि, तृष्णा चैकबीरा, तृषा क्षुधा महारानी
महाकालि, दुर्गे, रूद्राणि सरस्वती महामारी
हरहु तापत्रय मातृ भगवती, भक्तहिं लेहु उबारी
सेवहिं चरन कमल सुर अम्बे, निज, तन, मन, धन वारी
नासहु राग, शोक, भय, दारिद्र, ‘दीन’ हदय दुख भारी
भव सिन्धुहिं डूबहूँ उतराऊँ, तरनी लेहु उबारी
आरति कल्याणी की कीजै आरति।
मातृ चरन रज उर धर लीजै।
चन्द्र मुकुट सिर, सिहं सवारी
शक्ति, त्रिशुल, गदा कर धारी।
मातृ कृपा अमृत सब पीजै।
आरति कल्याणी की कीजै आरति।
त्रय नेत्री ललिते जगदम्बा।
उमा रमा ब्राह्माणी, अम्बा।
कृपा जलद बरसे तनभीजै।
आरती कल्याणी की कीजै।
शुम्भ निशुम्भ, महिषासुर मारा।
चण्ड मुण्ड, धूमहि, हति तारा।
आदि शक्ति छाया तन लीजै।
आरती कल्याणी की कीजै।
विधि हरि, हर जाकर यश गावैं।
शेष, देव, ऋषि पार न पावैं।
जननी शरण ‘दीन’ निज लीजै।
आरती कल्याणी की कीजै।
ऊँ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुल
भयदां मौलिबद्धेन्दु रेखां
शंखं चव्रंâ कृपाणं त्रिशिख
मपि करैरुद्धहन्तीं त्रिनेत्राम
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवन
मखिलं तेजसा पूरयन्ती
ध्याये दुर्गां जयाखयां
त्रिदशपरिवृतां सेवितांसिद्धिकामै:
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेष जन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि
दारिद्रयदु:ख भयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकार करणाय सदाऽऽर्दचित्ता।।१।।
एभिर्हतैजगुदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्
संग्राम मृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि ।।२।।
दृष्टैव विंâ न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम
लोकान् प्रयान्त्ु रिवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति ष्वपि तेऽतिसाध्वी ।।३।।
खड्गं-प्रभ्ज्ञानिकर विस्पुâरणैस्तथोग्रै:
शूलाग्रकान्ति निवहेन द्वशोऽसुराणाम
यन्नागता विलयमंशुभदिन्द्व खण्ड-
योग्याननं तव विलोकयातां तदेवत् ।।४।।
दुर्वृत्तवृत्त्शमनम् तव देवि शीलं
रूपं तथैतदविचिन्त्य मतुल्य मन्यै:
वीर्यं च हन्तृ हृतदवे पराक्रमाणां
वैथ्रष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम् ।।५।।
केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभय कार्यति हारि कुत्र
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वययेव देवि वरदे भुतनत्रयोऽिप ।।६।।
त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनितेऽप हत्वा
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त-
मस्मकमुन्मदसुरारिभवं नमस्त्े ।।७।।
शूलेन पाहिनो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके,
घण्टा स्वनेन न: पाहि चापज्यानि: स्वनेन च ।।८।।
प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि ।।९।।
सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्येमे विचरन्ति ते,
यानि चात्यर्थ घोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम् ।।१०।।
खड्गशूल गदादीनि यानि चास्त्राणि तेऽम्बिके,
कर पल्लव सड्गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वत: ।।११।।
शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे
सर्वस्यार्ति हरे देवि नारायणि नमोऽस्तुतेत ।।१२।।
सर्वाबाधा प्रशमनं त्रैलोकस्याखिलेश्वरि
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम् ।।१३।।
रोगान शेषान पहंसि तुष्टा
रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ।।१४।।
देवी प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचस्य ।।१५।।
ऊँ खड्गंचक्रगदेषु चापपरित्रघांछूलं
भुशुण्डीं शिर: शंखं संदधती करैस्त्रि
नयनां सर्वागंभूषां वृताम् नीलाश्मद्युति
मास्यपाददशंकां सेवे महा कालिकां
यामस्तौ स्वपिते हरौ कमल जो हन्तुं मधुभवैâटभम
उँ विश्वेश्वरी जगद्धात्रीं स्थिति संहारकारिणीम्।
निद्रां भगवती विष्णोरतुलाम् तेजस: प्रभु: ।।१।।
त्वं स्वाहा त्वं हि वषट्कार: स्वरात्मिका।
सुधा त्वमक्षरे नित्ये त्रिधा मात्रात्मिका स्थिता ।।२।।
अर्धमात्रास्थिता नित्या यानुच्चार्या विशेषत:।
त्वमेव संध्या सावित्री त्वं देवि जननी परा ।।३।।
त्वयैतद्धार्यते विश्वं त्वयैतत्सृज्यते जगत्।
त्वयैतत्पाल्यते देवि त्वमत्स्यन्त्े च सर्वदा ।।४।।
विसृष्टौ सृष्टिरूपा त्वं स्थितिरूपा च पालने।
तथा संहृतिरूपान्ते जगतोऽस्य जगन्मये ।।५।।
महाविद्या महामाया महामेधा महास्मृति:
महामोहा च भवती महादेवी महासुरी ।।६।।
प्रकृतिस्त्वं च सर्वस्य गुणत्रयविभाविनी।
कालरात्रिर्महारात्रिर्मोहरात्रिश्च दारूणा ।।७।।
त्वं श्रीस्त्वमीश्वरी त्वं हीस्त्वं बुद्धिर्बोधनलक्षणा।
लज्जा पुष्टिस्तथा तुष्टिस्त्वं शान्ति: क्षान्तिरेव च ।।८।।
खडगिनी शूलिनी घोरा गदिनी चक्रिणी तथा।
शंखिनी चापिनी बाणभुशुण्डि परिघायुधा ।।९।।
सौम्या सौम्यतराशेषसौम्येभ्यस्त्वतिसुन्दरी।
परापराणं तरमा त्वमेव परमेश्वरी ।।१०।।
यच्च विंâचित् उक्वचिद्वस्तु सदसद्वखिलाम्मिके।
तस्य सर्वस्य या शक्ति: सा त्वं विंâ स्तूयसे तदा ।।११।।
यया त्वया जगत्स्रष्टा जगत्पात्यति यो जगत्।
सोऽपि निद्रावशं नीत: कस्त्वां स्तोतुमिहेश्वर:।।१२।।
विष्णु शरीरग्रहणमहमीशान एव च।
कारितास्ते यतोऽतस्त्वाम स्तोतुं शक्तिमान् भवेत।।१३।।
सा त्वमित्थं प्रभावे: स्वैरूदारैर्देवि संस्तुता।
मोहयैता दुराधर्षावसुौ मधुवैâटभौ।।१४।।
प्रबोधं च जगत्स्वामी नीयतामच्युतो लघु।
बोधश्च क्रियातामस्य हन्तुमेतो महासुरौ।।१५।।
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते।।१६।।
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्।।१७।।
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा
रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टन्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां
त्वामाश्रिता ह्वाश्रयतां प्रयान्ति।।१८।।
देवी प्रपन्नर्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य।।१९।।